लो क सं घ र्ष !
  यह वाममोर्चे की हार है, वामपंथ की नहीं
 
यह पहला अवसर था जब वरिष्ठ माक्र्सवादी नेता ज्योति बसु अपना वोट नहीं डाल पाए और  यह संयोग है या वाम कतारों में भटकाव कि ठीक उसी समय पं बंगाल में वाम मोर्चा तीस वर्शों में पहली बार लड़खड़ाया। अब हार के कारण गिनाए जा सकते हैं और उन कारणों पर चिंतन और दोशारोपण भी हो सकते हैं, लेकिन वाम दलों को अपने गिरेबान में भी झांककर कर देखना चाहिए कि असल गलती कहां हुई है।
‘सर्वहारा अधिनायकवाद’ और ‘जो धरती को जोते- बोए वो धरती का मालिक है’ का नारा लगाकर व भूमि सुधार कार्यक्रम लागू करके पिछले तीन दशक से प. बंगाल की धरती पर एकछत्र राज कर रहे वामपंथी दलों की इस चुनाव में दुर्गति हो गई। केरल में भी वामपंथी दल काफी पिछड़ गए। बंगाल का मामला केरल से कुछ भिन्न है।
केरल में तो वामदलों के अंदर मची गुटबाजी और घटक दलों में मतभेद के कारण वाममोर्चा की हार हुई। केरल में माकपा के राज्य सचिव विजयन और मुख्यमंत्री वी.एस. अच्युतानंदन के बीच झगड़े और सार्वजनिक बयानवाजी का भी वाममोर्चा के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ा। दोनों नेताओं के बीच झगड़ा सड़क पर आ गया था और जिस अनुषासन के लिए कम्युनिस्ट पहचाने जाते हैं उस अनुषासन को विजयन और अच्युतानंदन ने तार-तार कर दिया।
साथ ही मदनी की पीडीपी से गठजोड़ ने वामदलों के सांप्रदायिकता विरोध पर जहां प्रश्नचिन्ह लगाया वहीं उनके इस कदम से केरल में आरएसएस ने कांग्रेस को खुला समर्थन दिया। यह कैसे हो सकता है कि तस्लीमा नसरीन को देश निकाला देने के लिए वामदल मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने घुटने टेक दे और मदनी से साझा भी कर लें और नरेंद्र मोदी को कोसते रहें। केरल में मदनी फैक्टर ने भी वाममोर्चा को हराने में अहम रोल अदा किया।
जबकि बंगाल में वामदलों को अपनी विचारधारा से हटने और बड़े पूंजीपतियों के पिछलग्गू बनने का खमियाजा भुगतना पड़ा। नंदीग्राम और सिंगुर के प्रकरण से माकपा को खासतौर पर बड़ा नुकसान उठाना पड़ा। इस आंदोलन के चलते कई बड़े वामपंथी बुद्धिजीवी वाममोर्चा के खिलाफ हो गए। यहां वाममोर्चा का वैचारिक दिवालियापन साफ उजागर हुआ जिसका तृणमूल कांग्रेस ने भरपूर फायदा उठाया। ऐसा नहीं है कि तृणमूल कांग्रेस सर्वहारा और मजदूर किसान को गाली देकर आगे बढ़ी बल्कि ममता बनर्जी ने उन्हीं सिद्धांतों और नारों को अपनाया जिन्हें वाममोर्चा के लोग पिछले तीस वर्षों से लगाते आ रहे थे।
सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी ने तो ममता बनर्जी को अतिवामपंथी भी करार दे दिया था ( हालांकि उनका ऐसा कहना उनके बुद्धिजीवी होने पर संदेह पैदा करता है) और स्वयं ममता ने भी चालाकी भरा वक्तव्य दिया था कि उनकी लड़ाई वामपंथ से नहीं बल्कि वाममोर्चा की किसान विरोधी नीतियों से है। ममता के पूरे आंदोलन के दौरान उसकी कमान माओवादियों ने ही संभाली और ‘सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर आॅफ इंडिया’ (एसयूसीआई) ने तो इस दौरान खुलकर ममता बनर्जी का साथ दिया।
एक और अन्य महत्वपूर्ण कारक माकपा की अपने सहयोगी वाम दलों से दादागिरी वाला व्यवहार रहा। वाममोर्चा की प्रमुख घटक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पोलित ब्यूरो ने तो दबे स्वर से माकपा पर इस तरह के आरोप लगाए भी हैं। माकपा ने अपने अंतर्विरोधों से जिन महत्वपूर्ण पुराने साथियों को बाहर का रास्ता दिखाया उनके लिए उसने सहयोगी वामदलों के भी रास्ते नहीं खुलने दिए। अगर सैफुद्दीन चैधरी जैसे लोग माकपा से निकाले जाने के बाद भाकपा या आरएसपी द्वारा आत्मसात कर लिए गए होते तो आज वाममोर्चा की जो दुर्गति हुई, संभवतः वह नहीं हुई होती। इसी तरह माकपा ने केरल में आरएसपी के साथ गठबंधन टूटने की परिस्थितियां पैदा कर दीं।
वामपंथी दलों की एक परंपरा रही है कि वहां नेता महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि पोलित ब्यूरो में ही सामूहिक निर्णय लिया जाता है। लेकिन बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का आचरण पूरी तरह कम्युनिस्ट नैतिकता के खिलाफ था। बुद्धदेव का टाटा के साथ दोस्ताना संबंध और उसके बाद नंदीग्राम और सिंगुर में पुलिस का उसी तरह इस्तेमाल जैसे खम्मम में वाई एस राजशेखर रेड्डी कर रहे थे, वाममोर्चा की हार का प्रमुख कारण रहा। नंदीग्राम और सिंगुर को बुद्धदेव ने अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा से जोड़ रखा था। इसलिए माकपा को बंगाल में जबर्दस्त नुकसान हुआ। बुद्ध बाबू का औद्योगिकीकरण का नारा मिखाइल गोर्बाचैफ का ‘पेरेस्त्रोइका’ और ‘ग्लास्नोस्त’ साबित हुआ। चुनाव प्रचार केदौरान स्वयं बंगाल माकपा में यह स्वर उठे थे कि बुद्धदेव को प्रचार से दूर रखा जाए लेकिन उनकी जिद के आगे माकपा झुक गई और उसका नुकसान उठाना पड़ा। सिंगुर और नंदीग्राम पर माकपा ने अपने सहयोगी भाकपा, आरएसपी और फारवर्ड ब्लाॅक के ऐतराज को दरकिनार कर बुद्धदेव के सामने घुटने टेक दिए।
एक और महत्वपूर्ण बात यह कि वामदल मीडिया प्रायोजित दुश्प्रचार का सही मुकाबला नहीं कर पाए। बड़े पूंजीपतियों द्वारा चलाए जा रहे अखबारों ने लगातार वामदलों के खिलाफ मुहिम चलाई और तृणमूल कांग्रेस द्वारा की जा रही गुंडागर्दी को आंदोलन का नाम दिया। वाम दल लोगों में अपनी यह बात रख ही नहीं पाए कि वहां हत्याएं तो वाम कार्यकर्ताओं की हो रही थीं और उनके पीछे तृणमूल का हाथ था।
इसी तरह जिस तीसरे मोर्चे का राग वाम दलों ने अलापा उसे जनता ने विष्वसनीय नहीं समझा क्योंकि मायावती तीन बार उत्तर प्रदेष में भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना चुकी थीं, चंद्रबाबू नायडू और जयललिता एनडीए के सहयोगी रह चुके थे ऐसे में जनता ने तीसरे मोर्चे पर भरोसा नहीं जताया। वहीं मायावती से नजदीकियों ने भी वामदलों का कबाड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जब मायावती सरकार भ्रश्टाचार के दलदल में फंसी हो और वामपंथी दल उसे प्रधानमंत्री बनाने के लिए युद्धस्तर पर जुटे हों तो ऐसा होना ही था। बंगाल-केरल में वाममोर्चा की हार वामपंथ की हार नहीं है। इस चुनाव में दल हारे हैं, साम्यवादी विचारधारा नहीं।
(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं एवं पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम प्रवकता के संपादकीय विभाग में कार्यरत हैं।)

अमलेन्दु उपाध्याय   


 
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